ऐसी बहुत सी चीजें हैं, जो इंसान की जिंदगी में जरूरी होती हैं। आज कोरोना के इस काल में हम उन सभी चीजों के बारे में गहराई से सोच और समझ रहे हैं। मनोरंजन भी उन्हीं जरूरी चीजों में से एक है। इंसान के जीवन में अगर सिनेमा, गाने और आर्ट ना होता तो ना जाने उसका क्या होता। यूं तो हमने भारतीय सिनेमा के इतिहास में कई कलाकारों को पर्दे पर अभिनय करते देखा है, लेकिन कुछ ही हैं जो जादू बुनते हैं, जिनका काम महज अभिनय से कई ऊपर रहा है और जो पर्दे से अपने काम से दर्शकों के दिलों में ऐसे उतरे, कि उनकी जिंदगी का हिस्सा हो गए। ऐसे ही कलाकार थे इरफान खान
आज उन्हें दुनिया से गए एक साल हो गया है। 1988 में इरफान ने अपने एक्टिंग करियर की शुरुआत की थी. नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा में पढ़ाई कर हिंदी सिनेमा में कदम रखने वाले इरफान ने करियर की शुरुआत में ही लीक से हटकर फिल्मों में काम किया था। वह मेनस्ट्रीम सिनेमा से परे आर्ट सिनेमा में अपने अभिनय का झंडा गाड़ रहे थे। मीरा नायर की सलाम बॉम्बे उनकी पहली फिल्म थी।
सलाम बॉम्बे में इरफान ने खत लिखने वाले किरदार निभाया था। वो दुबला-सा सड़क के किनारे बैठा लेखक, जो ना जाने कितने लोगों की यादों को अपने खतों में लपेटकर उनके अपनों तक पहुंचाता था। इस छोटे-से रोल से उन्होंने फिल्म में अपनी अलग जगह बनाई थी। मीरा नायर की इस फिल्म के बाद इरफान ने कमला की मौत, दृष्टि, एक डॉक्टर की मौत, जैसी फिल्मों में काम किया।
इसके बाद वो मियां मकबूल के किरदार में पर्दे पर नजर आए. यही वो मौका था जब इरफान ने अपनी आंखों से एक कहानी को सुनाया और दर्शकों ने सुना। प्यार, धोखे, कत्ल, बदले और सबकुछ खो पर बनी इस फिल्म में इरफान का जवाब नहीं था। विशाल भरद्वाज के निर्देशन में बनी इस फिल्म ने इरफान का अलग रूप दर्शकों को दिखाया और उनके करियर को नए आयाम दिए। 2003 में आई मकबूल इस बात का सबूत थी कि इरफान कुछ बड़ा करने के लिए इंडस्ट्री में आए हैं।
2006 में एक बार फिर इरफान खान ने मीरा नायर के साथ काम किया। इस बार वो झुम्पा लाहिरी की लिखी किताब द नेमसेक पर बनी फिल्म में नजर आए. इस भारतीय अंग्रेजी फिल्म में इरफान ने अशोक गांगुली के किरदार में जान डाली
तब्बू संग उनकी जोड़ी को एक बार फिर पसंद किया गया। तब्बू और इरफान ने मिलकर अशोक और आशिमा गांगुली को पर्दे पर जीवन दिया था, जो आज भी सिनेमा के दीवानों की यादों में बसा हुआ है।
ऐसा कोई ही रोल होगा जो इरफान खान ना कर सकते हों। वो गैंगस्टर मकबूल भी थे और नाई बिल्लू भी। प्रियदर्शन की फिल्म बिल्लू में उनका इरफान ने बिलास राव परदेसी उर्फ बिल्लू के किरदार को निभाया था। इस किरदार को उन्होंने मासूमियत और इमोशंस के मेल के साथ निभाया था।
हैदर का रूहदार किसी से भुलाए नहीं भूलता है। वो रहस्य्मयी-सा दिखने वाला शख्स, जो ना जाने कितना कुछ देख चुका है, अपने अंदर समाए है। इरफान खान का कालकोठरी वाला सीन एक अलग पैमाने पर दर्शकों से बात करता है। आज उस सीन को देखें तो आंसू आ जाते हैं, जब एक लुटा-पिटा, घायल, जंजीर से बंधा रुहदार जब कहता है- दरिया भी मैं, दरख्त भी मैं, झेलम भी मैं, चिनार भी मैं, दैर भी हूं, हरम भी हूं, शिया भी हूं, सुन्नी भी हूं, मैं हूं पंडित, मैं था, मैं हूं और मैं ही रहूंगा।”
पान सिंह तोमर के रूप में इरफान खान का काम लाजवाब माना गया था। ये एक और फिल्म थी, जिसे साबित किया था कि वह किसी भी किरदार को कर सकते हैं. इस बायोपिक फिल्म में इरफान खान भारतीय सेना के जवान बने थे, जो भारत के गेम्स में गोल्ड मैडल जीता था। हालांकि जिसे दबाव में आने के बाद सिस्टम के खिलाफ बागी होना पड़ा था।
द लंचबॉक्स जैसी फिल्में बॉलीवुड में कम ही बनती हैं और साजन फर्नांडिस जैसे किरदार सिनेमा में कम ही होते हैं। इरफान को साजन के रूप में देखना दर्शकों के एक अलग एक्सपीरियंस था। एक कड़क मिजाज का बूढ़ा आदमी, जो किसी से मतलब नहीं रखता, लेकिन एक लंच के डब्बे की मदद से अपना दिल हार बैठता है।
आज जब इरफान खान इस दुनिया में नहीं हैं, तो यही फिल्में और रोल्स हैं, जो उन्हें सिनेमा के दीवानों के जहन में जिन्दा रखे हुए हैं। यही वो किरदार हैं, जिन्होंने हमारा रिश्ता इरफान के साथ ऐसा जोड़ा कि वो जिंदगी का अहम हिस्सा बन गए। वो चले गए, उनका काम, उनकी लिगेसी और यादें रह गईं।