दिल से निकलेगी न कभी मरकर भी वतन की उलफत, मेरी मिट्टी से भी खुशबू-ए-वतन आएगी, शहीदे आज़म भगत सिंह की लिखी यह पंक्तियां उनके विचार को बाखूबी ब्यान करती है। इन लोगों ने स्वयं जागने, औरों को जगाने, जोश, ज़ज्बा, जुनून और जिद् करने की लौ समाज में जलाई। उनकी शहादत के 92 वर्ष बाद भी उनके विचार समाज में जिन्दा है, आज भी ये तीनों नाम देशवासियेां में एक नई प्रेरणा, नया उत्साह और नई उमंग भरने का काम करते हैं।
भारत एक युवा राष्ट्र है तो निश्चित रूप से युवा पीढ़ी के लिए ये आदर्श कायम रहें तो यह राष्ट्र कभी भी पुनः गुलामी की जंजीरों में नहीं बंधेगा। आज गुलामी अंग्रेजों की तो नहीं है परन्तु गुलामी पूंजीवाद की, गुलामी सामन्तवाद की, गुलामी औपनिवेशिक संस्थाओं, भाषा और व्यवस्थाओं की व्याप्त है। भगतसिंह समाजवादी विचारधारा के पक्षधर थे अतः जेल में लिखे अपने कई लेखों में उन्होंने पूंजीपतियों को अपना दुश्मन बताया।
उन्होंने लिखा कि मजदूरों का शोषण करने वाला उनके दुश्मन के समान है चाहे वह भारत का नागरिक क्यों न हो। केलिफोर्निया विश्वविद्यालय के एक शोध के अनुसार कपड़े बनाने वाले बड़े अर्न्तराष्ट्रीय ब्रैंड औरतों और लड़कियों को 11 पैसे प्रति घण्टा घरों में काम का देते हैं। गारमैंट कम्पनियों के घर से काम करवाने की यह अमानवीय परिस्थितियां निश्चित रूप से भगतसिंह के विचारों और स्वप्नों का भारत नहीं है। विश्व असमानता रिपोर्ट 2022 के अनुसार आज दस प्रतिशत लोगों के पास देश की 57 प्रतिशत आय है उसका भी 22 प्रतिशत केवल 1 प्रतिशत लोगों के पास है। 2021 के आंकड़ों के अनुसार नीचे के 50 प्रतिशत लोगों के पास इसका केवल 13 प्रतिशत है।
भगतसिंह का सारा परिवार गदर पार्टी का कट्टर समर्थक था अतः वैचारिक क्रान्ति भगतसिंह को परिवार की ओर से विरासत में मिली थी। देशप्रेम इतना कूट-कूट कर भरा था कि एक बार ये अपने पिता के साथ खेत पर गए वहाँ उनके पिता अपने मित्र से बात करने में मशगूल थे जबकि बालक भगत मिट्टी में बैठा कुछ कर रहा था, अचानक पिता के मित्र ने पूछा कि ‘‘भगत तू क्या कर रहा है?’’ भगत ने जवाब दिया कि, ‘‘मैं मिट्टी में बंदूकें बो रहा हूंँ, बड़े होकर गोरों को देश से भगाने के काम आएंगी।’’ किशोरावस्था की दो वीभत्स घटनाओं ने उनको पारिवारिक विरासत में मिली राष्ट्रभक्ति की भावना को इस्पात जैसा मजबूत करना आरम्भ कर दिया।
1919 में जलियांवाला बाग में निहत्थे व निदोष भारतीयों की नृशंस हत्या को जब उनकी मासूम आंखों ने देखा था तो वे मात्र 12 वर्ष के थे और उस हृदय विदारक मंजर को देखने के लिए वे अपने स्कूल से 12 किलोमीटर दूर पैदल चलकर जलियांवाला बाग पहंुचे थे। वहां उन्होंने शहीदों के खून से सनी गीली मिट्टी को मुट्ठी में लेकर एक बरतन में भर लिया और अंग्रेजों से प्रतिरोध की कसम खाई। दूसरा था 1921 में ननकाना साहिब में निहत्थे अकाली प्रदर्शनकारियों की हत्या का मंजर। चूंकि भगतसिंह का परिवार अहिंसक गांधीवादी विचारधारा का समर्थक था अतः उस समय भगत गांधी जी की शैल्ी का समर्थन करते थे परन्तु उनके मन में अहिंसक आन्दोलन और हिंसक क्रान्ति का तुलनात्मक विश्लेषण हमेशा चलता रहता था और वे अपने लिए सही रास्ते की तलाश में थे।
असहयोग आन्दोलन के दौरान चौरा-चौरी कांड के बाद जब गांधी जी ने असहयोग आन्दोलन वापिस लिया तो भगत सिंह ने आहत होकर युवा क्रान्तिकारी आन्दोलनों में अपनी सहभागिता बढ़ा दी। उस समय उनकी मुलाकात सुखदेव, राजगुरू और चन्द्रशेखर आजाद से हुई। काकोरी काण्ड के पश्चात् रामप्रसाद बिस्मिल, अश्फाकउल्ला खां की फांसी और 1928 की लाला लाजपत राय पर हुए प्रहार ने भगतसिंह की गतिविधियों को तेज कर दिया और 1928 में सांडर्स की हत्या को अंजाम दिया। 1929 में सैंट्रल असेम्बली में बटुकेश्वर दत्त के साथ बम फेंकना और साम्राज्यवाद मुर्दाबाद, इन्कलाब जिन्दाबाद के नारे लगाना और फिर वहां से न भागना और अपने आप को गिरफ्तार करवाना भगतसिंह के साहस को दर्शाता है।
भगतसिंह ने अपने इन्कलाब के नारे की व्याख्या में कहा था कि पिस्तौल और बम इन्कलाब नहीं लाते बल्कि इन्कलाब की तलवार विचारों की सान पर तेज होती है। हमारे इन्कलाब का अर्थ पूंजीवाद और पूंजीवादी युद्धों की मुसीबतों का अन्त करना है। भगतसिंह की क्रान्ति का उद्देश्य समाजवाद की स्थापना करना था और अन्याय पर आधारित वर्तमान समाज व्यवस्था में परिवर्तन लाना और सर्वहारा वर्ग की प्रभुता को मान्यता देना। वीरेन्द्र संधू के शब्दों में, ’’भगतसिंह के साहसी व क्रान्तिकारी व्यक्तित्व को एक तरफ रखकर हम उनके व्यक्तित्व को स्वभाव के शीशे में देखें तो वे एक सरस, सजीव, सहृदय, संतुलित और सात्विक मनोभाव वाले व्यक्ति थे। स्वामी ज्ञानानन्द के अनुसार गीता के वाक्य, ‘‘जातस्य ही ध्रुवो मृत्यु, ध्रुवो जन्म मृतस्य च’’ ने उन्हें निडर बनाने में अहम् भूमिका निभाई।
निस्संदेह भगतसिंह का समूचा व्यक्तित्व प्रेरणादायक है उनके यह शब्द, ‘‘मेरा उद्देश्य तो यह है कि जनता शहीदों की कुर्बानियों और जीवन भर देश के ही काम में लगे रहने के उनके उदाहरणों से प्रेरणा हासिल करे और समय आने पर उस समय की परिस्थितियों को देखते हुए अपने कामों का स्वयं निर्णय करे और यही है उद्देश्य स्वाधीनता के अमृत महोत्सव का भी। हमें इस अमृत महोत्सव में भगतसिंह, सुखदेव व राजगुरू जैसे महान क्रान्तिकारियों और देश भक्तों के बलिदान के प्रतिफल में प्राप्त हुई स्वतन्त्रता को अक्षुण्ण बनाये रखने में सदैव तत्पर रहना चाहिए और भले ही इसके निमित्त हमें अपना सर्वस्व ही क्यों न अर्पित करना पड़े। लोग कहते हैं बदलता है जमाना हरदम, मर्द वो हैं जो जमाने को बदल देते हैं
लेखक : डॉ. मारकण्डे आहूजा