विचार को संस्थान में परिवर्तित करने वाले डॉ. विक्रम साराभाई

सृजनशील वैज्ञानिक, सफल उद्योगपति, संस्था निर्माता, सर्वोच्च कोटि के प्रवर्तक, सामाजिक परिवर्तन के अग्रदूत, सकारात्मक प्रबन्ध प्रशिक्षक, संवेदनात्मक शिक्षाविद्, समर्पित कला पारखी और सच्ची राष्ट्रीयता के धनी भी कम शब्द है इस महान वैज्ञानिक के व्यक्तित्व को बयां करने के लिए। डॉ. साराभाई एक ऐसे स्वप्न दृष्टा थे जिन्होंने अपने स्वप्नों को मूर्तरूप दिया। नोबल पुरस्कृत क्यूरी दम्पति के अनुसार उनका उद्देश्य जीवन को स्वप्न बनाना और उस स्वप्न को वास्तविक रूप देना था। इसके अतिरिक्त उन्होंने अनेकानेक लोगों को स्वप्न देखना और स्वप्न को वास्तविकता में परिवर्तित करना सिखाया। भारत के अंतरिक्ष कार्यक्रम की सफलता इसका प्रमाण है। उन्हें भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान कार्यक्रम का जनक माना जाता है। उन्होंने भारतीय वैज्ञानिकों को अनुसंधान कार्य करने के साथ-साथ सामाजिक उत्थान करने की प्रेरणा दी। ऐसी ही भारत के पूर्व राष्ट्रपति ए.पी.जे. अब्दुल कलाम को प्रेरणा देने की कहानी कुछ इस तरह है जो मुझे गीता मनीषी स्वामी ज्ञानानन्द ने संस्थान के संग्रहालय के निर्माण के समय बताई-एक दिन एक सज्जन धोती पहने, शॉल ओढ़े हुए तिरुअनंतपुरम में समुद्र तट पर बैठकर भगवद्गीता का पाठ कर रहे थे।’’उसी समय वहां एक युवक आकर बैठ गया। उस सज्जन के हाथ में भगवद्गीता देखकर युवक ने कहा, ‘ऐसी किताबें पढ़ने का कोई मतलब है? देखिए, दुनिया चांद पर पहुंच गई है और आप अब भी गीता और रामायण पर अटके हुए हैं।’् उस सज्जन ने लड़के से पूछा, ‘गीता के बारे में तुम क्या जानते हो?’ लड़के ने सवाल का जवाब नहीं दिया और उत्साह से कहा, ‘यह सब पढ़कर क्या होगा?, मैं तो विक्रम साराभाई अनुसंधान संस्थान का छात्र हूं। मैं एक वैज्ञानिक हूं। मेरे लिए गीता पाठ किसी काम का नहीं है। उस युवक की बातें सुनकर वह सज्जन हंस पड़े।

कुछ ही देर में दो बड़ी गाडि़यां वहां आकर रुकीं। एक कार से दो ब्लैक कमांडोज और दूसरी कार से एक सिपाही नीचे उतरा। सिपाही ने बड़ी कार का पिछला दरवाजा खोलकर सलामी दी और दरवाजे के पास खड़ा हो गया। वह सज्जन जो गीता का पाठ कर रहे थे, धीरे से कार में चढ़कर बैठ गए। यह सब देख लड़का हैरान रह गया। उसे लगा कि वह आदमी कोई प्रसिद्ध व्यक्ति होगा। उस सज्जन के बारे में जानने के लिए लड़का तेजी से दौड़कर पास में गया और पूछा, ‘सर, आप कौन हैं?’ उस सज्जन ने बहुत धीमी आवाज में कहा, ‘मैं विक्रम साराभाई हूं। यह सुन वह लड़का हैरान रह गया। उसके बाद उस लड़के ने भगवद्गीता को पढ़ा। रामायण, महाभारत और अन्य वैदिक पुस्तकें भी पढ़ीं। गीता का उस पर बड़ा असर हुआ। उस युवक ने अपनी आत्मकथा में लिखा, ‘गीता एक विज्ञान है और भारतीयों के लिए अपनी सांस्कृतिक विरासत का गर्व का विषय है।’ वह लड़का और कोई नहीं, मिसाइलमैन डॉ. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम थे।

सुप्रसिद्ध व्यवसायी अम्बालाल और सुसंस्कृत महिला सरला देवी के यहां जन्में विक्रम की शिक्षा माता द्वारा संचालित स्कूल में हुई। स्कूल में भाषा, विज्ञान, कला, बागवानी और तकनीकी शिक्षा आदि के अलग-अलग योग्य और प्रशिक्षित अध्यापकों से शिक्षा और संस्कारों का बालक विक्रम पर अच्छा और गहरा प्रभाव पड़ा जिस कारण उनका जीवन पूर्ण रूप से विकसित हुआ। स्कूल के वातावरण के साथ ही घर पर आने वाली महान विभूतियां जैसे रविन्द्रनाथ टैगोर, मोती लाल नेहरू, महात्मा गांधी, सरोजिनी नायडू, डॉ. सी.वी. रमन, मौलाना अबुल कलाम आजाद और पं. जवाहर लाल नेहरू ने उनके अन्दर के राष्ट्रप्रेम को परिष्कृत किया। 1939 में केवल 20 वर्ष की आयु में ही कैम्ब्रिज से प्राकृतिक विज्ञान में ट्राइपोज़ की परीक्षा उतीर्ण कर भारत लौटे और डॉ. भाभा और डॉ. रमण से सम्पर्क में आकर भारतीय वैज्ञानिक अनुसंधान संस्थान बैंगलौर में कार्य आरम्भ किया।

डॉ. साराभाई अंतरिक्ष अनुसंधान में संलग्न महानतम वैज्ञानिकों में एक थे। इस क्षेत्र में उन्होंने अनेक महत्वपूर्ण शोध किए। सन् 1975-76 में संचालित शैक्षणिक उपग्रह दूरदर्शन प्रयोग कार्यक्रम का श्रेय भी उन्हीं को जाता है। इस कार्यक्रम का उद्देश्य शिक्षा को देश के 24 हजार गाँवों में रहनेवाले लगभग 50 लाख भारतीयों तक पहँुचाना था। देश के ग्रामीण क्षेत्रों में दूरदर्शन प्रसारण द्वारा शिक्षा, कृषि एवं ग्रामीण विकास का उनका स्वप्न आज साकार हो रहा है। डॉ. साराभाई भारत को एक सर्वशक्ति-सम्पन्न राष्ट्र के रूप में देखना चाहते थे। उनका विचार था कि देश के वैज्ञानिकों को शोधकार्य में तो लगे रहना ही चाहिए, साथ ही सामाजिक दायित्वों का भी निर्वहण करना चाहिए। वे कई बार विदेश भी गए। वहाँ अध्ययन और शोधकार्य करने वाले भारतीय वैज्ञानिकों को विज्ञान के क्षेत्र में अधिक से-अधिक शिक्षण-प्रशिक्षण प्राप्त करने के लिए प्रेरित किया। उनका कहना था कि देश के युवा वैज्ञानिकों को विदेशों में जाकर अध्ययन तो करना चाहिए, परन्तु अपनी प्रतिभा और योग्यता का उपयोग उन्हें अपने देश में ही करना चाहिए। वे इस बात के कट्टर समर्थक थे कि जब तक देश में परमाणु शक्ति का पूरी तरह विकास न कर लिया जाए तब तक परमाणु अप्रसार संधि पर हस्ताक्षर न किए जाएँ।

डॉ. साराभाई ने विभिन्न महत्वपूर्ण पदों पर कार्य करते हुए अपनी अद्भुत योग्यता और क्षमता का परिचय दिया। उनके कार्यों की सर्वत्र अनूठी छाप रही। उनके उच्च कोटि के शोध कार्य को देखते हुए सन् 1962 में उन्हें भौतिकी के लिए ‘शान्तिस्वरूप भटनागर पुरस्कार’ से सम्मानित किया गया। भारत सरकार ने उनके द्वारा किए गए महत्वपूर्ण कार्यों को देखते हुए सन् 1966 में उन्हें ‘पद्म भूषण’ से सम्मानित किया।

धनी परिवार में जन्म लेने और कई महत्वपूर्ण उपलब्धियाँ प्राप्त करने के बावजूद डॉ. साराभाई का स्वभाव बहुत सरल था। वे अपने सहायकों और छात्रों से भी अत्यन्त विनम्रतापूर्वक बात करते थे। एक बार वे ‘महात्मा गांधी विज्ञान संस्थान, अहमदाबाद’ की भौतिकी प्रयोगशाला में अपने छात्रों को प्रयोग करवा रहे थे। प्रयोग के दौरान तीव्र विद्युत प्रवाह के कारण मीटर जल गया। उस समय इस प्रकार का मीटर बाजार में आसानी से उपलब्ध नहीं था और मीटर के अभाव में प्रयोगशाला में प्रयोग करना भी सम्भव नहीं था। इसके अतिरिक्त एक अन्य महत्वपूर्ण बात यह थी कि डॉ. साराभाई ने थोड़े दिन पहले ही इस प्रयोगशाला की स्थापना की थी। इन सब बातों से प्रयोगशाला में प्रयोग कर रहे छात्र बहुत डरे हुए थे कि कहीं डॉ. साराभाई नाराज होकर उन्हें प्रयोगशाला से न निकाल दें; परन्तु गंभीर और उदारमना डॉ. साराभाई बिल्कुल नाराज नहीं हुए, बल्कि उन्होंने छात्रों को इस गलती से सीख लेते हुए अपना प्रयोग जारी रखने की प्रेरणा दी।
डॉ. साराभाई को प्राचीन भारतीय संस्कृति और पुरातत्व से गहरा लगाव था। वित्रकला और फोटोग्राफी में भी उनकी बड़ी रुचि थी। एक कलाकार मुक्त वातावरण में शिक्षा ग्रहण कर सके, नए प्रयोग कर सके-इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए उन्होंने ‘दर्पण’ नामक संस्था का शुभारम्भ किया। डॉ. साराभाई को कला और सौन्दर्य से बहुत प्रेम था। वह समाज और संसार से विमुक्त एकान्त में अनुसंधान में रत रहने वाले वैज्ञानिक नहीं थे। वे अपने परिवार के कार्यों में भी पूर्ण सहयोग देते थे। जन साधारण में विज्ञान के प्रति रुचि उत्पन्न करने के लिए उन्होंने अहमदाबाद में ही ‘लोक विज्ञान केन्द्र’ और ‘नेहरू विकास संस्थान’ की स्थापना की।

वे एक महान् वैज्ञानिक ही नहीं, अपितु समाज और देश के सच्चे सेवक भी थे। देश की स्वतन्त्रता के अमृत महोत्सव में उनकी पुण्यतिथि पर देश सदैव वैज्ञानिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, औद्योगिक और अनुसंधान के क्षेत्र में उनके अतुलनीय योगदान के लिए उनका ऋणी रहेगा और उनके बताए वैज्ञानिक एवं आध्यात्मिक स्वभावानुसार प्रगति की ओर अग्रसर रहेगा।

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