कोई आरजू नहीं है, है आरजू तो यह है-रख दे कोई जरा-सी खाके वतन कफन में
जो यह पंक्तियां अतीव आह्लादित होकर गाता था। जो आत्मबलिदानी अपने देश के लिये जीवन भर देश-विदेश की खाक छानता रहा, जो एक भी क्षण के लिये कभी अंग्रेजों की दासता सहन नहीं कर सका, अपने जीवन का पल-पल स्वाधीनता संघर्ष को समर्पित करता रहा, जिसकी कोई निज-अभिलाषा या अरमान नहीं थे। जिसका एकमात्र जीवन मंत्र था, ‘देश स्वतन्त्र हो, देश सुखी हो, देश सम्पन्न हो, देश समर्थ हो।
ऐसी पुण्य आत्मा को अंग्रेजों के बन्दीग्रह में स्वेच्छा से प्राण-त्याग करते हुअे कोई-सी कठिनाई हो सकती है या कौन-सी ताकत इन्हें बांध सकती है। कहा जाता है कि जिस दिन उन्हें अंग्रेजों द्वारा गोली मारी जानी थी, उससे पहली रात सूफी जी ऊँचे स्वर में गाते रहे और एक पहर जब बचा तो पूजा पर बैठ गये और वहीं उनकी जीवित समाधि सिद्ध हुई। वे अब कभी न उठेंगें, अंग्रेज उन्हें कभी न छू सकेंगें, वे अब अनन्त यात्रा पर निकल चले, जेल में तो पार्थिव शरीर पड़ा था, अंग्रेज अब उसका कुछ भी करें। यह मानव चोला तो एक दिन मिट्टी में मिलना ही है, क्यों न इस पर रंग बसन्ती चढ़े और वह देश हित के काम आये-इससे बढ़कर इस शरीर की सार्थकता क्या हो सकती है।
लन्दन के अन्यायी-आतातायी-अत्याचारी शासन को अंगूठा दिखाकर भारत का यह महान सपूत स्वतन्त्र हो गया और लज्जित कर गया अंग्रेजों की कारागार को उसकी क्रूरता और कठोरता पर। कहते हैं उनके साथी बसन्त सिंह को गोली मारे जाने के बाद सूफी जी ज़ोर-ज़ोर से और पूरे जोश से ओ3म् की ध्वनि गुंजारित करने लगे और फिर अन्य बन्दियों को पुकार कर कहा-भाईयों, सूफी का आखिरी अभिनन्दन स्वीकार करो। कल अपनी भी चला-चली है। जिन्दगी के इस त्यौहार पर आप सबको क्या भेंट दूं? शायद आप में से कईयों को यह बलिदान का त्यौहार आगे-पीछे मनाना पड़े। किसी बात का अफसोस या सोच न करना। जन्म-मरण के फेरे तो चलते ही रहते है-चलते रहेंगे। एक जन्म देश को दे दिया तो कौन-सी बड़ी बात हुई। हाँ देश सेवा की अभिलाषा अभी पूरी नहीं हो पायी। अगले जन्म में फिर से उसका अवसर मिले भगवान से यही कामना है।
ईरानी जवानों ने जेल की खिड़की पर सर टेक कर सजदा किया और पुकार कर कहा-आका सूफी! हमारे दिलों में भी अपनी जैसी हिम्मत, दिलेरी और मुल्क के लिये कुर्बानी का जज्बा जगाते जाना। हम तुम्हें कभी भूलेंगें नहीं। ईरान तुम्हारी बुलन्दी को हमेशा याद करता रहेगा। बड़े-बुर्जुगों ने जेल के बाहर पुकार कर आवाज़ दी,’’ आज़ादी के दीवाने, मस्ताने सूफी; तुम अपने मुल्क का नाम रोशन कर गये। तुम्हारी पाकीज़ा रूह को हमारी दिली दुआएं! सूफी जिन्दाबाद! हिन्दोस्तान जिन्दाबाद! दूर विदेश में मरने वाले को इतना प्यार मिलना, इतना सम्मान मिलना कि आज उनका समाधि स्थल पूजनीय स्थल बना हो, आज सूफी अम्बाप्रसाद नहीं है, उनकी स्मृति ही शेष है।
भारत से अधिक ईरान उस तपस्वी को याद करता है और सिराज़ में उसकी समाधि से प्रेरणा पाता है। स्वतन्त्रता का अमृत महोत्सव उस हुतात्मा को याद करने का, उनकी स्मृतियों को अपनी पीढि़यों के दिलों में संजोये रखने का अद्भुत अवसर है। यह उस अमृत पुरुष की कहानी है जो 1857 की क्रान्ति के अगले ही वर्ष मुरादाबाद में एक लुंज यानि बिना दाहिने हाथ के रूप में पैदा हुआ जो बड़े होकर उसी हाथ की और ईशारा करके कहता-क्या करें भाई, बात यह है कि 1857 की लड़ाई में अंग्रेजों के साथ लड़ते समय मेरा हाथ कट गया था। फिर मृत्यु हो गई और शीघ्र ही दूसरा जन्म तो मिला, परन्तु मेरा दाहिना हाथ कटा का कटा रह गया।
यह अमृत पुरुष कोई और नहीं पंजाब के महान क्रान्तिकारी सूफी अम्बा प्रसाद। वकालत पास सूफी जी को वकालत से अधिक लगाव लेख और पुस्तकों में था अतः उसी दिशा में प्रवृत्त होकर 1890 में उूर्द अखबार निकाला ‘‘जाक्युल उलूम’’। इस अखबार ने अंग्रेजों की दुर्नीति, कूटनीति, क्रूरनीति, छद्मनीति की धज्जियां उड़ा दी। इसके अलावा समय-समय पर आपने ‘आबे हयात्’ और ‘पेशवा’ अखबार भी निकाले पेशवा समाचार-पत्र का परायण सरदार भगत सिंह ने युवावस्था में किया और इससे निकला क्रान्ति का संदेश घुट्टी बनकर उनके खून में दौड़ता रहा। अंग्रेजों द्वारा यह अखबार जब्त कर लिया गया। इसी सूफी ने पागल नौकर बनकर ‘अमृत बाज़ार पत्रिका’ को सूचनायें प्रेषित कर मध्यप्रदेश राज्य के रेजिडेंट के भ्रष्टाचार का भाण्डा फोड़ किया।
अंततः उस रेजिडेंट को हटना पड़ा जब यह साहिब समान बांधकर स्टेशन पहुंचा तो वही पागल नौकर पूरे साहिब वेश में अंग्रेजी बोलता हुआ, रेजिडेंट के पास आया और बोला, ‘‘यदि मैं आपको उस भेदिये का नाम बता दूं तो क्या इनाम दोगे?’’ उसने तुरन्त कहा, ‘‘मैं तुम्हें बख्शीश दूंगा। ‘‘तो लाइए दीजिए, मैंने ही वे सब समाचार छपने के लिए भेजे थे समाचार पत्र में।’’ अंग्रेज रेजिडेंट कुढकर रह गया।
उफनकर कहा- ‘‘यू गो! पहले मालूम होता तो मैं तुम्हारी बोटियां कटवा देता।’’ फिर भी ईनाम देने का वचन किया था अतः जेब से सोने के पट्टे वाली घड़ी निकाली और देते हुए कहा-‘‘लो यह ईनाम और तुम चाहो तो मैं तुम्हें सी.आई.डी. में अफसर बनवा सकता हूं। 1800 रूपये महीने में मिला करेंगे, बोलो तैयार हो। इस पर उन्होंने कहा-‘‘यदि मुझे वेतन का ही लालच होता तो क्या आपके रसोईघर में झूठे बर्तन धोता? रेजिडेंट इस दो टूक उत्तर पर हतप्रभ रह गया। यह पागल बना हुआ व्यक्ति कोई और नहीं महान् क्रान्तिकारी सूफी अम्बाप्रसाद थे।
है नमन उनको जो कि यशकाय को अमरत्व देकर,
इस जगत में शौर्य की जीवित कहानी हो गए हैं,
है नमन उनको जिनके सामने बौना हिमालय,
जो धरा पर गिर पड़े पर आसमानी हो गये हैं।

, कुलपति, गुरूग्राम विश्वविद्यालय, गुरूग्राम
द्वारा
डॉ. मारकन्डे आहूजा
संस्थापक कुलपति
गुरूग्राम विश्वविद्यालय, गुरूग्राम