- द्वापर युग में हुआ था त्रिकूट पर्वत क्षेत्र में अवतरण
- कंस के हाथों से मुक्त हो यहां हुई थी विराजमान
- जन-जन की लोकदेवी है कैलादेवी
- यदुवंश से रहा है नाता,चैत्रशुक्ल अष्टमी को भरता है बड़ा मेला
- कोरोना के कारण इस बार मेला नहीं
@दीपक शर्मा, करौली/उदयपुर
पूर्वी राजस्थान का प्रसिद्ध शक्तिपीठ है कैलादेवी। त्रिकूट पर्वत की सुरम्य घाटी में बना कैलादेवी का भव्य मंदिर
अपने शिल्प और स्थापत्य के कारण तो दर्शनीय है ही उसके साथ देशभर से दर्शन करने आने वाले लाखों
श्रद्धालुओं की आस्था का भी पावन केन्द्र है। कहते है कि कैलादेवी वहीं योगमाया देवी है जिसे कंस ने देवकी
की आठवीं संतान मान कर अपने हाथों से मुक्त कर दिया था और वो बिजली बन आकाश में चली गई थी।
वो ही योगमाया त्रिकुट पर्वत पर आकर कैलादेवी के रूप में प्रकट हुई।
कैसे अवतरित हुई मां कैलादेवी
सौम्यस्वभाव वाले मथुरानरेश विजयपाल युद्ध में शत्रुओं से हार गए। वे अपना राज्य त्यागकर वन में चले गये।
त्रिकूटवन में उन्होंने विजयचन्द्रदुर्ग (बयाना) नामक किले तथा नगर की स्थापना की। वे रानी तथा दो पुत्रों के
साथ वहाँ आनन्द से राज्य करने लगे। इसी बीच अबू बक्र नामक महाक्रूर और अधम म्लेच्छ ने उनके नगर
पर आक्रमण कर दिया। दोनों में भीषण युद्ध हुआ। युद्ध में अबूबक्र से युद्ध में राजा विजयचन्द्र मारे गए।
उनके पुत्र तिम्मनपाल और गजपाल राज्य को त्यागकर सुरक्षित निकल गए। युवराज तिम्मनपाल ने त्रिकूटपर्वत
पर जाकर एक भव्य रूप वाले तपस्वी को देखा। उसने केदारगिरि नामक तपोनिधि सन्त की शरण ली और
संत को सारी व्यथा सुनाई। इस पर संत बोले-हे यदुवंशशिरोमणि ! खेद मत करो। तुमने दुर्भाग्य से महान्
कष्ट पाया है। तुम्हें अपनी कुलदेवी योगमाया कैलादेवी की उपासना करनी चाहिए। वे इसी त्रिकूटपर्वत पर
विराजमान हैं। तुम्हारे पिता तो उन्हें भूल गए थे।
तब युवराज तिम्मनपाल बोला – प्रभो ! मुझे कुलदेवी की कथा सुनाएं। योगी संत ने तम्मनपाल को बताया कि कृपामयी योगमाया अपने भक्तों की रक्षा तथा दुर्जनों का संहार करने के लिए द्वापर युग में अवतरित हुई। उस समय कंस ने अपनी मृत्यु के भय से वासुदेव और देवकी को कारागार में कैद कर रखा था। श्रीकृष्ण का जन्म होने पर पिता वासुदेव उन्हें नन्द के गोकुल में ले गए। वे वहाँ से कन्यारूपिणी सुरेश्वरी योगमाया को ले आए। वासुदेव ने सोचा कि मामा कंस कन्या की हत्या नहीं करेगा।
कन्या इस लोक में सर्वत्र श्रद्धापात्र मानी गई है तथा उसकी वन्दना होती है,पर दुष्ट में दया कहां? कंस कन्या
को मारने के लिए तैयार हो गया। कन्यारूपधारिणी पराशक्ति योगमाया गरजने लगी। वे कंस के हाथ से मुक्त
होकर आकाश में चली गईं। सुरेश्वरी ने कंस की मृत्यु की घोषणा कर दी। वे अन्तर्धान होकर त्रिकूट पर्वत पर
आकर विराजमान हुईं। यहाँ वे भक्तों द्वारा कैलादेवी नाम से पूजी जाने लगी।
मां चामुण्डा भी साथ में विराजमान
मन्दिर में कैलामाता की मूर्ति के साथ चामुण्डामाता की भी प्रतिमा है। कैलामाता की प्रतिमा का मुख थोड़ा
टेढ़ा है। लोकमान्यता के अनुसार एक भक्त को किसी कारणवश मन्दिर में प्रवेश नहीं करने दिया गया। वह
निराश लौट गया। तब से भक्तवत्सल माता उसी दिशा में निहार रही है।
नरकासुर का भी किया था संहार
मथुरानरेश राघवदास के समय में नरकासुर नामक राक्षस का संहार भी योगमायास्वरूपा कैलामाता ने कालीरूप
धारण कर किया। बताते है तभी से कैलादेवी कुलदेवी के रूप में पूजी जाने लगी। मन्दिर का विकास स्थानीय
यदुवंशी शासकों द्वारा समय-समय पर कराया गया। इनमें मथुरा से आकर बयाना राज्य स्थापित करने वाले
शासक विजयपाल (1040-1092 ई.) उसका पुत्र तिम्मनपाल (1093-1159 ई.), उसका वंशज करौली-
संस्थापक अर्जुनपाल (14वीं सदी) व परवर्ती उत्तराधिकारी गोपालदास भौमपाल आदि प्रमुख थे।
करौली के यदुवंशी राजा चन्द्रसेन के पुत्र युवराज गोपालदास को अकबर ने दक्षिण-विजय के लिये भेजा तो उसने कैलादेवी
के यहां विजय की मान्यता मानी। युद्धों में विजय पाने के बाद उसने मन्दिर में निर्माण कार्य कराया। इसी प्रकार करौली नरेश भंवरपाल ने भी यात्रियों की सुख-सुविधा हेतु सडक़ों व धर्मशालाओं का निर्माण कराया। यहीं कारण है कि चैत्रशुक्ला अष्टमी को निकलने वाली शोभायात्रा में करौली नरेश के सम्मिलित होने की परम्परा है।
लांगुरिया है मां के सनातन गण
कैलामाता की अनुकम्पा पाने का सबसे सुगम उपाय उनके गण लांगुरिया को प्रसन्न करना है। लांगुरिया
को राजी किये बिना कैलामैया से मनोवांछित फल नहीं मिल सकता। कैलामाता का सनातन गण लांगुरिया
के रूप में पूजित हुआ।मेले के दौरान हजारों भक्त लांगुरिया नृत्य करते हुए गाते हैं, कैलामैया के भवन में
घुटमन खेले लांगुरिया। चैत्र के नवरात्र में घण्टियों की घनघनाहट और कैलादेवी के जय-जयकार मध्य गुंजित
स्वर-लहरियों में लांगुरिया से देवी तक श्रद्धालुओं की प्रार्थना पहुँचाने का अनुरोध अनेक बार सुनाई पड़ता है।
कैलादेवी के प्रति भक्तों की आस्था और विश्वास इतना दृढ़ है कि एक मनौती के पूरा होते ही वे दूसरी मनौती
मांगने में तनिक भी संकोच नहीं करते। श्रद्धालु इस विश्वास के साथ अपने घरों को लौटते हैं- ‘अबके तो हम
बहुएं लाए हैं,अगली बार जडूला लाएंगे।
करौली वाली माता भी कहते हैँ
शक्तिपीठ कैलादेवी करौली से लगभग 21 किमी की दूरी पर स्थित है । त्रिकूुट की सुरभ्य घाटी में बना कैलादेवी
का यह भव्य मंदिर अपने शिल्प और स्थापत्य के कारण तो दर्शनीय है ही। उसके साथ करौली के लाल पत्थरों
की लालिमा के मध्य कैलादेवी का स्वर्ण कलश युक्त सफेद संगमरमर से बना यह भव्य मन्दिर अपनी लहराती
लाल पताकाओं से सफेद और लाल रंगो के सम्मिश्रण का अदभुत दृश्य दर्शनार्थियों को सम्मोहित करता है ।
कैलादेवी करौली के यदुवंशी राज परिवार की कुलदेवी है, जो लोक में करौलीमाता के नाम से भी प्रसिद्ध है।
यदुवंशी होने के कारण इसीलिए करौली राजवंश का सम्बन्ध भगवान श्रीकृष्ण से जोड़ा जाता है। मन्दिर के
प्रवेशद्वार पर देवी के वाहन सिंहों की सुन्दर प्रतिमाएँ स्थित हैं। मन्दिर में संगमरमर के विशालकाय खम्भे हैं।
मन्दिर के समीप कालीसिल नदी धनुषाकार बहती है। नदी के पवित्र जल में स्नान करके श्रद्धालु देवी का दर्शन
करते हैं।
मां के आशीर्वाद से ही बसा था आगरा (अग्रपुरी)
अग्रोहा के महान राजा अग्रसेन अग्रपुरी ( आगरा ) का निर्माण कराने का निश्चय करके यहाँ आए। उस महाबली
राजा ने जगदम्बा की कृपा प्राप्त की। इसके बाद उन्होंने अति उत्तम और भव्य नगरी की स्थापना की। करौली
यदुवंश में हुए गोपालदास नामक वीर राजा नेे सम्राट अकबर के अनुरोध से आगरा में एक दुर्ग का निर्माण
कराया। उसका निर्माण पूर्ण होने की खुशी में कुलदेवी कैलामाता का भव्य महोत्सव भी आयोजित किया। उस
अवसर पर आगरा के नागरिक प्रसन्नता से भावविह्वल हो गए। कहते है कि महाराजा अग्रसेन के कारण ही
महामाया महालक्ष्मी का स्वरूप कैलादेवी को यादवों की तरह अग्रवाल भी अपनी कुलदेवी के रूप में मानने लगे।
वैसे तो कैलादेवी जन-जन की हैं। यहां आने वाले यात्रियों को देख ही कैलादेवी को लोकदेवी के रूप में पूजने
का अंदाजा लगाया जा सकता हैं।
डाकू जहां चढ़ाते थे विजय घंटा
कैलादेवी मंदिर का यह क्षेत्र चम्बल के बिहड़ों से सटा हुआ है। या यूं कहे कि ये क्षेत्र चम्बल के बिहड़ों का एक
भाग हैं। यहीं कारण है कि माँ कैला देवी के इस मन्दिर में वेश बदलकर डकैत आ
देवी की आराधना करते थे। वे अपने लक्ष्य की साधना के लिए मां से मन्नत मांगते। मन्नत पूरा होने पर
फिर आते। मां की कई घंटों साधना कर विजय घंटा चढ़ा निकल जाते थे । क्षेत्र के कुख्यात डकैत भी यहां आते रहे हैं। इनमें करौली का राम सिंह डकैत, जगन गूर्जर, धौलपुर के बीहड़ों में अड्डा बनाने वाला औतारी और करौली के जंगलों का सूरज माली डकैत शामिल हैं हालांकि, साधना के समय आने वाले डकैतों ने श्रद्धालुओं को कभी हानि नहीं पहुंचाई।
कैलादेवी की आरती व दर्शनो का समय
कैलादेवी के मन्दिर में पूजा उपासना का सिलसिला प्रतिदिन प्रात: चार बजे मंगला आरती व झांकी से प्रारम्भ होता है । प्रात: ग्यारह बजे राज भोग और बारह बजे दिवस शयन होता है । मध्याह्न से रात्रि नौ बजे तक मन्दिर में दर्शनार्थियों का तांता लगा रहता है
कैलादेवी मेला
प्रतिवर्ष चैत्रमास के नवरात्रपर्व पर सबसे बड़ा मेला लगता है। तब लाखों श्रद्धालु दर्शनार्थ आते हैं। भारतीय जनमानस में कैलादेवी के प्रति अपार आस्था है। आस-पास के तथा दूरस्थ स्थानों के श्रद्धालु रंग-बिरंगे परिधानों में सज-धजकर माता के दरबार में हाजिर होते हैं। कोई माथा टेकने, कोई मन्नत मांगने तो कोई मन्नत पूरी होने पर जात देने आते रहते हैं। वे भोग-प्रसाद चढ़ाते हैं, जगराता करवाते हैं तथा कन्याओं को जिमाते हैं। राजस्थान के अलावा उत्तरप्रदेश व मध्यप्रदेश में कैलादेवी की बड़ी मान्यता हैं। मेले के समय राजस्थान, यूपी व मध्यप्रदेश स्पेशल बसे श्रद्धालुओं के लिए संचालित करते हैं। चूंकि कोरोनाकाल के कारण कैलादेवी के इस बार भी मेला नहीं भरेगा।