-वरिष्ठ पत्रकार कुलदीप शर्मा की संस्मरणों के साथ भावपूर्ण श्रद्धाजंलि
अलविदा महेश जी !
आप इस तरह एक पल में अचानक… सबको अंचभित कर चल देंगे…किसी को उम्मीद नहीं थी। आप पर तो साक्षात महाकाल का इष्ट था और ईश्वर में आपकी श्रद्धा अद्भुत थी। आपका आज यूं चले जाना…हरि इच्छा प्रबल है। हृदयाघात…और जस्टिस महेशचंद शर्मा चले गये।
महेशजी अनेक संदर्भों में हमेशा याद किये जायेंगे। राजस्थान उच्च न्यायालय के मुखर न्यायाधीश…राज्य मानवाधिकार आयोग के संवेदनशील सदस्य…अधिवक्ता समाज के लिए सबसे लोकप्रिय व्यक्तित्वों में से एक…जन्मभूमि दौसा की शान। और जज की भूमिका से परे पूरे प्रदेश के ब्राह्मण समाज के लिए निरंतर तत्पर और समर्पित…इस सबके साथ ही वे एक जिंदादिल, मिलनसार, बेबाक और संवेदनशील व्यक्ति थे…जिन्होंने ‘ शून्य से शिखर तक ‘ अपना इतिहास अपने संघर्ष और लगन से खुद रचा और समाज में मिसाल बने।
मैं उनकी संघर्ष यात्रा का बचपन से साक्षी रहा हूं। जब वे दौसा से जयपुर आये और यहां वकालत शुरू की। मेरे नानाजी और उनके पिताजी में रिश्ता एक पीढ़ी दूर का था लेकिन दोनों में सहोदर भाईयों जैसा प्रेम और अपनत्व था। दोनों ही शिक्षक थे और अपने मूल्यों एवं स्वाभिमान के धनी।
युवा महेशजी के पास साइकिल थी और वे मेरे मामाजी श्री रमेश मुद्गल जी जो एक शिक्षक थे, उन्हें महेशजी अपने अभिभावक की तरह मानते थे। उन दिनों महेशजी साइकिल पर घूमकर एक-एक साधारण मुकदमे को भी पाने के लिए संघर्ष करते थे।
मुझे याद है जब उन्होंने अपनी जिंदगी का पहला मुकदमा जीता तो इसकी मिठाई दौसा में उनके घर पर मैंने भी खायी थी। मैं कोई आठ -नौ साल का रहा होऊंगा और उनकी मम्मी ने सबसे पहला लड्डू प्रेमपूर्वक मेरे ही मुंह में ठूंसा था क्योंकि मैं वहां मौजूद लोगों में सबसे छोटा जो था।
महेशजी ने जयपुर के जिला एवं सत्र न्यायालय परिसर में पं. दुर्गालाल जी बाढ़दार के सानिध्य में वकालत शुरू की। पं. दुर्गालाल जी विधायक भी रहे और सन् 42 के स्वतंत्रता आंदोलन की जयपुर में वे एक बुलंद आवाज थे। महेशजी ने उनके सानिध्य में वकालत की दीक्षा ग्रहण की।
जब उन्होंने स्वतंत्र रूप से वकालत शुरू की तो सेशन कोर्ट के भू-तल के बरामदे में सीढ़ियों के सामने खंभे के पास अपनी कुर्सी लगाई। जहां वे वर्ष 2006 में राजस्थान उच्च न्यायालय का न्यायाधीश बनने से पहले तक वकालत करते रहे।
अस्सी के दशक में शुरू में महेशजी सेशन कोर्ट के अदालती समाचारों की न्यूज भी राजस्थान पत्रिका और दैनिक नवज्योति जैसे अखबारों में दिया करते थे। इस लिहाज से हम उन्हें जयपुर का पहला ‘ लीगल रिपोर्टर ‘ भी कह सकते हैं। इस तरह उनका पत्रकारिता से भी एक अनगढ़ रिश्ता रहा। बाद के अनेक वर्ष वे राजस्थान पत्रिका में बतौर ‘ लीगल रिपोर्टर ‘ न्यूज देते रहे। जब तक कि वे जयपुर के सफल और जुझारू वकील नहीं बन गये। उनके इस जुझारूपन के भाजपा के दिग्गज नेता और पूर्व मंत्री भंवरलाल जी शर्मा और कांग्रेस के दिग्गज नेता और पूर्व राज्यपाल पं. नवलकिशोर जी शर्मा दोनों गहरे प्रशंसक थे।
जब महेशजी ने अपने नाम के आगे ‘ दौसावाला ‘ लगाया और ‘ महेश दौसावाला ‘ जयपुर का एक लोकप्रिय नाम बन गया तो नवलजी उन्हें कहते कि – ” महेश, तूने दौसा का नाम ऊंचा कर दिया। ” महेशजी की राजनीति में भी तब गहरी दिलचस्पी थी। लेकिन नवलजी उन्हें विधि क्षेत्र के लिए प्रेरित करते और कहते कि – ‘ महेश तुझे बहुत आगे जाना है। ‘ यह बात फलीभूत भी हुई।
मैं वर्ष 1996 में वकालत की डिग्री लेकर काला कोट पहन सेशन कोर्ट जाने लगा तो वे मुझे चुपचाप नोटिस करते और फिर एक दिन बोले – ‘ तुझे फलां वकील साहब का जूनियर किसने बनाया ।’
मैंने अपने एक वकील मित्र का नाम लिया। इस पर वे कुछ नहीं बोले।
इसके कुछ महीने बाद मैंने वकालत छोड़ दी और अनिल लोढ़ा जी ने मुझे समाचार जगत में ‘ ट्रेनी लीगल रिपोर्टर ‘ बनाया। मैं बहुत जोश से सेशन कोर्ट जाने लगा। एक दिन महेशजी ने मुझे एक घंटे तक फुर्सत में सेशन कोर्ट में अपने संघर्ष की और लीगल रिपोर्टिंग की भी कहानी सुनाई।
उन्होंने कहा – ” यहां मेरा पूरा बस्ता गायब हो गया था, लेकिन मैंने किसी को कुछ नहीं कहा। पूरी लगन से सभी फाइलों को दुबारा तैयार किया और हार नहीं मानी। ”
समय का चक्र चलता रहा और मैं समाचार जगत, दैनिक नवज्योति, दैनिक भास्कर में लीगल रिपोर्टर बनकर कोर्ट आता-जाता रहा। हालांकि कोर्ट की रिपोर्टिंग मुझे भीतर से नापंसद थी। लेकिन कोर्ट प्रांगण में मैं जोश पूरा दिखाता था क्योंकि मुझे कोर्ट परिसर में बहुत-सी आंखें वॉच किया करती थीं …कुछ अपनी..कुछ बेगानी।
जब महेशजी ‘ न्यायमूर्ति महेशचंद शर्मा ‘ बने तब मैं दैनिक भास्कर में लीगल रिपोर्टर था। वे सेशन कोर्ट में एक- एक वकील की सीट पर जाकर मिले और वकीलों का हुजूम उनके साथ था। फूल-मालाओं का अंबार लगा था। खंभे से सटी अपनी पुरानी-सी सीट पर आकर वे भावुक हो गये। चारों तरफ वकीलों का हुजूम था।
महेशजी का गला भर आया, आंखों में तलाई आ गयी और सैंकड़ों लोगों के बीच उन्होंने मुझे पुकार कर कहा – ” कुलदीप, यही अपनी है ! ”
महेशजी राजस्थान हाईकोर्ट के न्यायाधीश रहने के दौरान सेशन कोर्ट में लगभग हर कार्यक्रम में बुलाये जाते। वे वकीलों के सबसे लोकप्रिय जजों में एक रहे। युवा वकीलों को वे हमेशा प्रोत्साहित करते। वकील बिरादरी से उनका जीवंत रिश्ता हमेशा बना रहा। ईश्वर में उनकी गहरी श्रद्धा थी और मंदिरों में दर्शन भी वे नियम और काल-गणना से करते थे, चाहे ताड़केश्वर जी हो या मोतीडूंगरी गणेशजी या फिर डिग्गी कल्याणजी या उज्जैन महाकाल।
लीगल पत्रकारिता के जीवट योद्धा और बड़े भाई मुकेश शर्मा जी अक्सर महेशजी के जनपरक और संवेदनशील फैसलों और टिप्पणी पर बात करते थे। मेरी अपनी राय में भी महेशजी ने सैंकड़ों फैसले बेमिसाल लिखे और सिर्फ उनकी एक टिप्पणी ही विवादित हुई। लेकिन कभी-कभी कोई एक बात हजार अच्छाईयों पर हावी हो जाती है।
राजनीतिक पत्रकारिता के प्रमुख हस्ताक्षर योगेश शर्मा जी ने अपनी भावनाएं बयां करते हुए सही कहा है। महेशजी दौसा ही नहीं बल्कि पूरे राजस्थान की शान थे। वे योगेशजी के पिता पूर्व मंत्री और प्रदेश के ‘ प्रखर युवा तुर्क ‘ चंद्रशेखर जी शर्मा (बांदीकुई) के अनन्य मित्र थे। अपने मित्रों के लिए वे अदम्य उत्साही थे। जिन्हें अपना मानते उनके लिए सब-कुछ करने के लिए तत्पर रहते थे।
डेढ़ साल पहले मैं महेशजी से फोन पर भिड़ गया था।
रामेश्वर डूडी जी जब राजस्थान विधानसभा के नेता प्रतिपक्ष थे, मैं उनका मीडिया-प्रभारी और सिपहसालार था। डूडी जी की चुनाव में हार के कुछ महीनों बाद महेशजी का अचानक मुझे एक दिन फोन आया – ” कुलदीप, तू अब क्या कर रहा है ? ‘
मैंने कहा – ‘ टाइमपास ! ‘
महेशजी ने कहा – ” तू मेरी बात मान। जर्नलिज्म में वापस आकर काम कर। अभी तेरे पास समय है। मैंने तेरी बात कर ली है। ”
मैं उनसे कम मिलता था। जब वे जज रहे तो बरसों तक कभी नहीं मिला, लीगल रिपोर्टर था, तब तक ही मिला।
मैंने पलट कर कहा –
‘ आपने मेरी बात क्यों की ? मुझे अब कहीं नौकरी नहीं करनी। ‘
वे मुझे समझाते रहे। एक- दो बार नहीं बल्कि उन्होंने कई बार फोन किये।
फिर एक दिन भावुक हो गये –
” तेरे से लगाव है इसलिए मैं तुझे कहीं देखना चाहता हूं। ”
मैंने भी भावावेश में कहा –
” अब नौकरी नहीं करूंगा। मोहन शर्मा जी के अखबार में घूमने चला जाता हूं, वहीं मन लग जाता है। ”
महेशजी ने मेरी पूरी बात तसल्ली से सुनी और फिर कहा – ” ठीक है, अब नहीं कहूंगा, लेकिन चाय पीने तो आ कभी मानवाधिकार आयोग के दफ्तर । ”
वे भी जानते थे, मैं अब उनके पास महीनों नहीं जाऊंगा। लेकिन मैं नहीं जानता था कि वे आज अचानक यूं सबको अवाक कर चले जायेंगे।
लेकिन आज सुबह ही उनकी याद आयी थी, उनका कोई प्रसंग याद आ गया था। पता नहीं…ऐसा क्यों हुआ ? वे अपने अंतिम पलों तक कर्मयोग करते हुए दुनिया से गये…66 वर्ष की उम्र क्या होती है ? शायद महाकाल की यही इच्छा रही होगी।
लेकिन महेशजी का जाना बहुतों के लिए अपूरणीय निजी क्षति रहेगा। वे आर-पार संरक्षक और हरफनमौला मार्गदर्शक थे।
वे हजारों लोगों के दिलों में हमेशा बसे रहेंगे…
सादर नमन।
कुलदीप शर्मा, जयपुर