जयपुर: सुशासन, नेतृत्व, कर्तव्य परायणता और आत्मबल को श्रीमद्भगवद्गीता कई प्रकार से संदर्भित करती है जिनकी आधुनिक संदर्भ में पुनः व्याख्या की जा भी रही है। कौटिल्य के अर्थशास्त्र में राज्य के कार्यों में लोगों के कल्याण को सर्वोपरि माना गया। महात्मा गांधी ने सुराज पर जोर दिया जिसका अनिवार्य रूप से मतलब सु-षासन ही है। भारतीय संविधान में शासन के महत्व को स्पष्ट रूप से रेखांकित किया गया है जोकि संप्रभु, समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष एवं लोकतांत्रिक गणराज्य पर आधारित है, साथ ही लोकतन्त्र, कानून के शासन और लोगों के कल्याण के लिए प्रतिबद्ध है। पूर्व संयुक्त राष्ट्र महासचिव कोफी अन्नान के अनुसार सुशासन मानव-अधिकारों के लिए सम्मान और कानून का शासन सुनिष्चित करता है और लोकतन्त्र को मजबूती, लोक प्रशासन में पारदर्षिता एवं सामर्थ्य को बढ़ावा देता है। भारत में पूर्व प्रधानमन्त्री अटल बिहारी वाजपेयी की जयन्ती के अवसर पर 25 दिसम्बर को प्रतिवर्ष सुषासन दिवस मनाया जाता है। इस दिवस का उद्देष्य भारत के नागरिकों के मध्य सरकार की जवाबदेही के प्रति जागरूकता पैदा करना है। भारतीय परम्परा में रामराज की कल्पना भी सुषासन को ही इंगित या व्यक्त करती है।
निष्चित ही रामराज्य भारतीय समाज और शासन व्यवस्था का स्वर्ण युग था। रामराज्य का वर्णन करते हुए कहा गया है कि उस समय विधवाओं का विलाप सुनाई नहीं देता था, कोई चोर नहीं था, रोगों की आषंका नहीं थी, सर्पादि दुष्ट जन्तुओं का भय नहीं था, पापकर्मों से किसी का दूर-दूर तक लेना देना नहीं था, बूढ़ों को बालकों के अन्त्येष्टि संस्कार नहीं करने पड़ते थे, सभी लोग प्रसन्न थे, सभी धर्म परायण थे और कोई किसी को कष्ट नहीं पहुंचाता था। सभी जन अपने-अपने कर्मों से संतुष्ट रहते थे और स्वधर्म-स्वकर्म का तत्परता से पालन करने में खुषी अनुभव करते थे, नागरिक पूर्णतः तुष्ट व पुष्ट थे, अकाल आदि का भय नहीं था, स्त्रियां पतिव्रता थी, न आग का भय था, न जल का, न ज्वर का और न भूख का। वृक्षों की जड़ें सदा फल-फूलों से भरी रहती थी और मेघ इच्छा होते ही वर्षा करते थे। वायु स्वच्छ थी, सर्वत्र प्रेमोत्सव छाया रहता था। अधिकारी जन सामान्य की सेवा में आनन्दित होते थे और नागरिक रामराज्य के घटक होने पर गौरवान्वित होते थे।
अधिकतर लोग मानते हैं कि उस युग के आदर्ष और सुव्यवस्था आज अव्यावहारिक है परन्तु यदि सूक्ष्मता से देखा जाये तो उस रामराज्य और आज के समाज में बहुत समानताएं और साक्षेपताएं देखने को मिलेंगी। उस समय भारत में कई स्वतन्त्र राज्य थे ऐसे में श्रीराम ने अष्वमेघ यज्ञ कर राजनैतिक ही नहीं अपितु सांस्कृतिक साम्राज्य स्थापित किया उनके राज्य को मर्यादित राजतन्त्र कहा जा सकता है। उस समय भी जन-सामान्य किसी अस्थाई सरकार से उत्पन्न होने वाली अस्थिरता, अराजकता और सहयोगियों की लूट से परिचित थे अतः सभी एक योग्य और वैधानिक शासक द्वारा एक संगठित और शक्तिशाली राष्ट्रव्यवस्था में विष्वास रखते थे।
इस आदर्श का महत्व तो आज के परिदृष्य और परिपेक्ष में स्वतः ही समझ में आता है। स्वतन्त्रता के इस अमृत महोत्सव में हम ध्यान दें कि आजकल जनता और जनप्रतिनिधि दोनों ही अमर्यादित होते जा रहे हैं और जहां जनता केवल निजी लाभ या जात-पात धर्म के आधार को ध्यान में रखकर मतदान करती है वहीं तथाकथित नेता लोग कभी ‘‘गठबन्धन’’ तो कभी-कभी ‘‘षठबन्धन’’ कर कुत्सित राजनैतिक खेल खेलते रहते है। ऐसे में रामराज्य के ‘‘मर्यादित राजतन्त्र’’ को थोड़ा रूपांतरित कर ‘‘मर्यादित जनतन्त्र’’ की स्थापना का प्रयास होना चाहिए तभी पूर्ण होगी स्वराज से सुराज की अभिलाषा और आनन्दमयी होगा स्वतन्त्रता का अमृत महोत्सव।