@देवाशीष भारद्वाज, भरतपुर
विष्णु के छठें अवतार चिरंजीवी भगवान श्रीपरशुराम का आज जन्मोत्सव है। जयंती कहना सार्थक व उचित नहीं, क्योकिं
जयंती उनकी मनाई जाती है जो भू-लोक पर मौजूद नहीं।
अश्वत्थामा बलिर्व्यासो हनुमांश्च विभीषणः।
कृपः परशुरामश्च सप्तैते चिरंजीविनः॥
यानी अश्वत्थामा, बलि,व्यास,हनुमान,विभीषण, कृपाचार्य और परशुराम चिरंजीवी माने गए है। यह अमर आत्माएं है। आज भी यह माना जाता है कि भगवान परशुराम महेंद्र पर्वत पर घोर तपस्या कर रहे हैं। अपने स्वयं के लिए नहीं बल्कि सम्पूर्ण मानव जाति के कल्याण,सुख-शांति के लिए। इसीलिए श्रीपरशुराम भगवान हम सबके लिए पूज्य है। भगवान नारायण के अवतार भगवान श्रीपरशुराम सामाजिक समरसता के प्रतीक है। वह किसी वर्ग विशेष के नही अपितु पूरे सामाज के आराध्य है।
तीस सहस्र यादवों को सहस्रार्जुन के संहार से परशुरामजी ने ही बचाया
भगवान परशुराम ने रैवतक ( गिरनार ) क्षेत्र के तीस सहस्र यादवों को सहस्रार्जुन के संहार से बाहर सुरक्षित निकालकर आपदा प्रबंधन का अद्भुत उदाहरण आज से लगभग 8,000 साल पहले प्रस्तुत किया था । रक्तपित्त से पीड़ित गंधर्वों की सेवा में लगी होने के कारण उनकी मां पिता द्वारा शापित एवं तिरस्कृत थीं।
उन पीडितों का संहार कर उन्हें कष्ट से मुक्ति दिलाई और युद्ध में मृतक वीरों का अन्तिम संस्कार कर सामाजिक उद्धारकर्ता की भुमिका निभाई। घायलों को भृगु आश्रम भेजकर उनकी सेवा सुश्रूशा कर उनके अपने बिछडे परिजनो को सौंपा था। गुरु से शिक्षा और तप या स्तुति से देवों से जो शक्ति उन्हें मिली उसको भी उन्होंने अधर्म के उन्मूलन में ही लगाया। स्वयं के आत्मगौरव के उन्नयन में नहीं।
सहस्रार्जुन का संहार आवश्यकता और धर्म दोनों
समाज एवं संस्कृति का अपनयन करने वाले, आतिथ्य देकर क्षुधा शान्ति करने वाले से प्रियवस्तु की लालसा पालने वाले ,सदैव क्षमा पर क्षमा दर्शाने वालों के हत्यारे, धर्मो रक्षति रक्षत: को झुठलाने वाले महाआतंकी एवं शक्तिशाली सहस्रार्जुन का संहार करना भगवान श्रीपरशुरामजी की आवश्यकता भी था और धर्म भी ।
इसलिए की ब्रह्म व शिव लोक की यात्रा
उन्हें ब्रह्म तथा शिव लोक की यात्रा भी करनी पड़ी थी। अपने गुरुदेव भगवान शिव की आज्ञा से त्रैलोक्य विजय ,ब्रह्माण्ड विजय , काली, महालक्ष्मी नामक कवचों को प्राप्त करने के लिए कठिन साधना, तपस्या तथा मंत्रों का स्तवन एवं आव्हान करना पड़ा । ये कवच, मंत्र तथा स्तवन उनके उद्देश्यों की पूर्ति में सहायक होने के साथ- साथ आज संसारिक लोगों के लिए सुलभ एवं मार्गदर्शी बन गये हैं ।
धर्म एवं सुशासन की स्थापना में योगदान
उन्होंने अपनी सारी जीती हुई भूमि अपने या अपने उत्तरजीवितों के लिए सुरक्षित नहीं की, अपितु उसका एक-एक इंच दान करके धर्म एवं सुशासन की स्थापना में सहयोग किया । स्वयं के रहने के लिए वरुणदेव को तपोसाधना से प्रसन्न करके सूर्पारक ( केरल / कोंकण ) का क्षेत्र समुद्र द्धारा छोड़े जाने पर ग्रहण किया था ।
सनातन एवं शाश्वत मूल्यों के रक्षक
आज भी परशुराम भगवान के आदर्श एवं नीतिपरक कार्य पूरे आर्यावर्त को एक अखण्ड सार्वभौमिक स्वरूप को देने तथा बनाये रखने में सक्षम हैं। वे भारत के ब्राह्मण वंश मात्र के प्रतिनिधि नहीं रहे ,अपितु सनातन एवं शाश्वत मूल्यों की रक्षा के लिए सर्व समाज द्वारा समादरणीय एवं पूज्य रहे हैं।
दुष्टों का दमन और सत-पुरुषों को संरक्षण रही उनकी प्राथमिकता
सबसे दीर्घजीवी चरित्र भगवान श्रीपरशुरामजी का है। सतयुग के समापन से कलयुग के प्रारंभ तक उनका उल्लेख मिलता है। भारतीय इतिहास या यूं कहे तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी कि दुनियां में इतना दीर्घजीवी चरित्र किसी का नहीं है। वे हमेशा निर्णायक और नियामक शाक्ति रहे। दुष्टों का दमन और सत-पुरुषों को संरक्षण ही सदैव उनकी प्राथमिकता रहा।
आओं संकल्प लें भगवान श्रीपरशुराम जी जन्मोत्सव पर हम सबको भगवान श्रीपरशुरामजी के जीवन चरित्र से प्रेरणा लेकर शोषित,वंचितों के उत्थान के लिए कार्य करते हुए धर्म की रक्षा एवं स्थापना का संकल्प लेना चाहिए।
(लेखक विप्र फाउंडेशन जोन-1 डी (राज.) युवा के प्रदेश सचिव हैं)