- गोठमांगलोद स्थित दधिमती माता
- दाधीच ब्राह्मणों की है मुख्यरूप से कुलदेवी, अन्य समाज भी मानते हैं कुलदेवी के रूप में
- महर्षि दधीचि की बहन थी दधिमती माता
- महर्षि के देहदान के बाद उनके पुत्र पाप्लाज का माता ने ही किया था लालन-पालन
- नागौर जिले की जायल तहसील में है मां का भव्य मंदिर
उमेन्द्र दाधीच @
देशभर में यूं तो प्रमुख 51 शक्तिपीठ है। उसके अलावा भी दुर्गा के विभिन्न रूपों के अनेक मंदिर है जिनकी दूर दराज तक मान्यता हैं। इन्हीं में से एक मंदिर है नागौर जिले की जायल तहसील स्थित गोठ मांगलोद वाली दधिमती माता का। यहां मां के कपाल की पूजा होती है। जनश्रुति के अनुसार दधिमती माता की प्रतिमा तीव्र ध्वनि के साथ धरती से निकलना प्रारम्भ हुई तो इतनी तेज आवाज हुई की जिसे सुनकर कर आसपास के ग्वाले व गायें भयभीत होकर वहां से भाग गए। इस कारण माता का कपाल मात्र ही बाहर निकल पाया। वर्तमान में चांदी का टोपा कपाल पर रखा है, जिसमे माता का चेहरा अंकित है। दधिमती माता को लेकर एक मान्यता यह भी है कि प्राचीनकाल में महाराजा मान्धाता के यज्ञकुण्ड से माघ शुक्ल सप्तमी के दिन देवी दधिमती प्रकट हुई। वर्तमान में गोठ मांगलोद वाली दधिमती माता का यहां विशाल मंदिर हैं। दाहिमा (दधीचक) ब्राह्मणों की कुलदेवी को समर्पित यह देव भवन भारतीय स्थापत्य एवं मूर्तिकला का गौरव है। दधिमतीमाता के इस विशाल मंदिर का विक्रम संवत 1906 के लगभग दाहिमा ब्रह्मचारी विष्णुदास तथा तदनन्तर दाहिमा ब्राह्मण महासभा द्वारा नवीनीकरण एवं जीर्णोद्धार करवाया गया। इस मंदिर में चैत्र व अश्विन नवरात्रों में मेले लगते है।
दधिसागर मथने वाली दधिमतीमाता
नागौर जिले की जायल तहसील में जिला मुख्यालय से लगभग 40 किमी. उत्तर-पूर्व में दधिमतीमाता का प्राचीन और प्रसिद्ध मंदिर अवस्थित है। इस मंदिर के आस पास का प्रदेश प्राचीन काल में दधिमती (दाहिमा) क्षेत्र कहलाता था। मंदिर से संबंधित मिली जानकारी के अनुसार मंदिर प्रतिहार नरेश भोजदेव प्रथम (836-892 ई.) के समय में बना। इस मंदिर से जुड़ी चमत्कार की भी अनेक कथाएं है। पौराणिक मान्यता के अनुसार विकटासुर नामक दैत्य संसार के समस्त पदार्थों का सारतत्व चुराकर दधिसागर में जा छिपा था देवताओं की प्रार्थना पर स्वयं आदिशक्ति ने अवतरित होकर विकटासुर का वध किया और सब पदार्थ पुन: सत्वयुक्त हुए। दधिसागर को मथने के कारण देवी का नाम दधिमती पड़ा। दधि को मथकर असुर द्वारा छिपाये गये वेदों का उद्धार करने के कारण आद्यशक्ति महामाया दधिमती नाम से प्रसिद्ध हुई। इस प्रकार दाधीचों की यह आराध्य कुलदेवी साक्षात महामाया नारायणी देवी का ही स्वरूप है।
महर्षि दधीचि की बहन है माता दधिमती
देवताओं द्वारा याचना करने पर वृत्रासुर का वध करने के लिए अपनी अस्थियों का दान करने वाले महर्षि दधीचि ऋषि के अपना शरीर का त्याग देने तथा मुनि की पत्नी सुवर्चा द्वारा प्राण त्यागने के उपरांत उनके पुत्र पिपलाद मुनि का पालन दधिमती माता ने ही किया था। दधिमती महर्षि दधीचि की बहिन है। मंदिर परिसर मे ही महर्षि दधीचि का भी मंदिर बना हुआ है।
400 साल पुराना शिलालेख
दधिमती माता मंदिर से संबंधित शिलालेख आज भी मैसूर के म्यूजियम में सुरक्षित है। इस पर स्पष्ट अंकित है मंदिर निर्माण में दाधीच ब्राह्मणों का विशेष योगदान रहा है। पुरातत्त्वज्ञों की जानकारी एवं विश्लेषणों के आधार पर मंदिर का जीर्णोद्धार गुप्त संवत् 284 में हुआ था। शिखर का निर्माण विक्रम संवत् 745 के आसपास हुआ, विक्रम संवत् 1735 के लगभग कमलापतिजी के वंशजों ने यहां कमरे बनवायें तथा विक्रम संवत् 1903 में ब्रह्मचारी विष्णुदासजी ने चार चौके लगवाये। आज यह पुण्य स्थान एक भव्य मंदिर के रूप में शोभायमान है। पूर्व जज रहे सम्पत राज दाधीच के अनुसार औरंगजेब के समय जब इस मंदिर पर हमला किया गया तो अचानक लाखो की संख्या मे मधुमखियों ने आकर फौज पर हमला बोल दिया और मुगल सेना को प्राण बचाकर भागना पड़ा।
हवा में झूलता स्तंभ
इस मंदिर की एक खास बात यह भी है की निज मंदिर में ही एक खम्भा अधर यानी हवा में झूल रहा है। बजुर्ग बताते है पहले इस खम्भ के नीचे से पूरा हाथ निकल जाता था, परन्तु अभी भी आप कपड़ा निकाल सकते है। मान्यता है की जिस दिन यह स्तम्भ पूरा धरती से चिपक जाएगा कलयुग का अंत हो जाएगा।
रामायण
मुख्य मंदिर के शिखर पर पूरी रामायण ऊकेरी गई है। यह मंदिर पुरातत्त्व विभाग द्वारा संरक्षित स्थलों मे से एक है। कपाल कुंड का भी अपना विशेष महत्व है। पूरे क्षेत्र मे जहां खारा पानी है, वही इस कुंड का प्राकृतिक जल बड़ा ही निर्मल है।
श्री दधिमथी वैदिक गुरुकुल
राष्ट्र संत परम पूज्य आचार्य स्वामी गोविंददेव गिरिजी महाराज,कोषाध्यक्ष श्रीराम जन्मभूमि तीर्थ क्षेत्र अध्यक्ष, महर्षि वेदव्यास प्रतिष्ठान, पुणे के संरक्षण एवं पावन प्रेरणा स्वरूप के संरक्षण में गोठ मांगलोद में वेद विद्यालय की स्थापना कर बालको को वेद अध्ययन कराया जाता है। भारतीय संस्कृति की प्रमुख विधाओं को पुनर्जीवित कर व्यक्ति तथा समाज में उच्च मूल्यों की स्थापना करने की दृष्टि से श्री दधिमथी सेवा ट्रस्ट, हैदराबाद द्वारा श्री दधिमथी वैदिक गुरुकुल, गोठ मांगलोद की स्थापना की गई।
विशाल कैम्पस
श्री दधिमथी वैदिक गुरुकुल, गोठमांगलोद का विशाल कैम्पस स्वच्छ प्राकृतिक वातावरण में दधिमती माताजी मंदिर के निकट मेहरवास रोड़ पर स्थित है। तीन बीघा भूमि पर नवनिर्मित ‘गुरुकुल कैम्पस’ ‘ में अधिकतम 100 छात्रों के लिए अध्य्यन-कक्ष, छात्रावास, भोजनालय, पुस्तकालय, कंप्यूटर-कक्ष, तथा व्यायाम/ खेलकूद हेतु सभी प्रकार की पर्याप्त व्यवस्था है। साथ ही पूर्ण सुविधायुक्त 4 आचार्य-निवास, सन्तनिवास, एक सुन्दर एवं भव्य मन्दिर तथा यज्ञशाला (बटुकों के प्राशिक्षणार्थ) निर्मित है। बटुकों को गाय का शुद्ध दुग्ध उपलब्ध हो सके, इस हेतु एक गौशाला का निर्माण भी किया गया है। जो गुरुकुल से सटी हुई ‘ट्रस्ट’ की ही 7 बीघा भूमि के एक भाग पर निर्मित है।
उल्लेखनीय है कि यह गुरुकुल , परम पूज्य आचार्य स्वामी गोविन्ददेव गिरिजी महाराज के सीधे संरक्षण में संचालित महर्षि वेद व्यास प्रतिष्ठान, पूना द्वारा आसेतु हिमालय संचालित 35 वेदविद्यालयों की मालिका का ही एक पुष्प है। यहां बटुकों को वैदिक अध्ययन के साथ ही अंग्रेजी, गणित, तथा कंप्यूटर आदि आधुनिक शिक्षा भी प्रदत्त की जाती है ।श्री दधिमथी सेवा ट्रस्ट हैदराबाद के सचिव हरिनारायण व्यास ने बताया कि इसी वर्ष फरवरी में आरम्भ हुए इस वैदिक गुरुकुल के प्रथम वर्ष में लगभग 30छात्रों को वेदाध्ययन हेतु चयनित किया जाकर अध्ययन करवाया जा रहा है तथा आगे और भी नवीन छात्रों को प्रवेश दिया जाता रहेगा। वेदाध्ययन की सप्तवर्षीय अवधि में वैदिक बटुकों के अध्ययन,निवास, भोजन,निर्धारित पोशाक, पाठ्यसामग्री आदि का संपूर्ण व्यय ‘ ट्रस्ट ‘ द्वारा ही वहन किया जारहा है। मरुधरा में वेदवाणी से यह धरा और भी पवित्र हो गई है।
श्रीदधिमती माता अन्य समाज/गोत्र/खांप की भी कुलदेवी
श्री दधिमती माता की दाहिमा ब्राह्मणों के अलावा भी अनेक समाजों में कुलदेवी के रूप में मान्यता है। जिस क्षेत्र में श्री दधिमती माता का मन्दिर स्थित है वह क्षेत्र श्रीमाताजी के नाम से दाधिमत (दाहिमा) कहलाता है। प्रसिद्ध इतिहासकार श्री गौरीशंकर हीराचन्द ओझा के मतानुसार दाहिमा क्षेत्र से निकले हुए विभिन्न जातियों के लोग दाहिमा ब्राह्मण, दाहिमा राजपूत, दाहिमा जाट आदि कहलाए। ये सब दाहिमा श्री दधिमथी माता को कुलदेवी मानते हैं। दाहिमा ब्राह्मण महर्षि दधीचि के वंशज होने से दाधीच भी कहलाते हैं। माहेश्वरी माहेश्वरी समाज में भी बाहेती, डागा, असावा, चेचाणी, मनियार खांप की दधिमती माता ही कुलमाता है। इसके अलावा महेश्वरियों में ही कचौल्या, जाखेटिया, इनाणी, लोया, गिलड़ा, पलोड़ खांप वाले भी दधिमती माता को मानते हैं। महेश्वरी समाज की मंदिर निर्माण में भी पुराने टाइम में भागीदारी रही हैं। इसी प्रकार मैढक्षत्रिय स्वर्णकार समाज में अलदायण, अलवाण, अहिके, उदावत, कटलस, कपूरे, करोबटन, कलनह, काछवा, कुक्कस खोर और माहरीवाल गोत्रों की कुलदेवी श्रीदधिमतीमाता हैं। अग्रवाल समाज की कुलदेवी श्रीमहालक्ष्मीमाता है, इसलिए वे कुलदेवी श्री महालक्ष्मी के अवतारों को भी कुलदेवी मानते हैं। चूँकि श्रीदधिमतीमाता को भी श्री महालक्ष्मी की अवतार माना जाता हैं। इसलिए दाहिमा क्षेत्र के निवासी अग्रवाल उन्हें कुलदेवी मानते हैं।